इस बार दशहरे पर कई शहरों में रावण जलने से पहले ही गल गया

कितनी अजीब और चौंका देने वाली बात है कि त्रेता युग में इतने बड़े वंश के स्वामी-रावण की चिता पर कोई लकड़ी डालने वाला नहीं था। …और आज उसी रावण को बनाने वाले लाखों हैं, जलाने वाले करोड़ों।
ख़ैर, दशहरे के एक दिन पहले अगर शहर के कुछ कोनों पर निकलो तो हर तरफ़ लंका नज़र आएगी। सैकड़ों की तादाद में रावण खड़े दिखेंगे। जैसे फ़सल लहलहा रही हो। दंभ की। अहम् की। मोह- माया की।
इत्तिफ़ाक़ की बात है कि देश के कई शहरों में, ख़ासकर मध्यप्रदेश के शहरों में इस दशहरे पर, दिन में भारी बारिश हुई। यहाँ-वहाँ खुले मैदानों में सिर ताने खडे रावण जलने के पहले ही गल गए। तहस- नहस हो गए। जैसे राम से पहले इंद्र ने उन पर तीर चला दिए हों। वैसे इंद्र की हमेशा से आदत रही है। जब चाहे उसने अपनी मनमानी की। अब भी वही प्रक्रिया जारी है।
कुल मिलाकर, बारिश के कारण कई स्थानों, मैदानों पर रावणों के धू- धू कर जलने की प्रक्रिया धीमी रही। सुना है कुछ स्थानों पर बारिश से बचाने के लिए भाई लोगों ने रावण के पुतलों को रेन कोट पहना रखे थे। इच्छा यह थी कि जो कुछ भी हो जाए, जलाएँगे हम ही। इंद्र की मजाल, कि वो हमसे पहले रावण को तहस नहस कर दे! लेकिन जहां भारी से अति भारी बारिश हुई, वहाँ ये रेन कोट वाली तरकीब भी काम नहीं आई। रावण बेचारा बिन किसी समारोह के ही मारा गया।
दशहरे पर राम की जीत और रावण की पराजय हुई थी, यह तो सर्व विदित है, लेकिन उसे इस दिन जलाते- फूंकते क्यों हैं, विजय का उत्सव मनाने के अलावा ज़्यादा कोई वर्णन नहीं मिलता।
दरअसल, रावण, कुम्भकर्ण और मेघनाद की अपनी अलग- अलग विशेषताएँ थीं। जैसे कि वर्णन मिलते हैं- रावण की नाभि में अमृतकुण्ड था। कुम्भकर्ण छह महीने सोकर एक दिन जागता था और इस एक दिन की आहट से ही पृथ्वी-पाताल काँपते थे। वह तो भला हो माँ सरस्वती का, जो जिव्हा पर बैठ गईं वरना छह महीने जागने का वरदान माँग लिया होता तो जाने क्या होता!
मेघनाद को वही मार सकता था जो 14 साल तक सोया न हो और जिसने इतने ही समय ब्रम्हचर्य का पालन किया हो, लेकिन शहरों के मुहानों पर दशहरे से पहले बसी लंकाओं में इन तीनों को बेचने वालों से पूछें तो उनके लिए तीनों में ज़्यादा फ़र्क़ नहीं था। रावण न बिके तो शीश काटकर मेघनाद या कुम्भकर्ण बना देते हैं।
हमारी सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था देखिए कि जो रावण बिकने से बच जाता है, उसे बनाने वाले ही जला देते हैं। ऐसा क्यों? पूछने पर जवाब मिला कि जिस बाँस से एक बार रावण बन गया, उस बाँस को कोई ख़रीदता नहीं। कोई किसी काम में नहीं लेता। ज़्यादा सोचें तो ख़्याल आता है कि ऐसा रावण जलाना ही क्यों? … और ऐसा रावण बनाना भी क्यों, जो आख़िर में बचकर हमारी ही पूँजी को फुँकवा दे।
.