त्रेतायुग से लग रहा यह मेला, महाभारत काल में पांडवों ने यहीं किया था दीपदान
गजरौला। तिगरी गंगा मेले की शुरुआत त्रेता युग में हुई थी। मान्यता है कि अपने नेत्रहीन माता-पिता को तीर्थ करवाने के लिए निकले श्रवण कुमार गढ़मुक्तेश्वर के नक्का कुएं पर रुके थे। वहां उन्हें देखने के लिए लोगों की भीड़ उमड़ पड़ी थी। कार्तिक पूर्णिमा पर गंगा स्नान करने के बाद श्रवण कुमार हरिद्वार के लिए रवाना हो गए थे। इन पांच दिन तक वह तंबू लगाकर यहीं रहे। तभी से यहां मेले की शुरुआत हुई। इसके अलावा पांडवों ने महाभारत युद्ध में मरने वाले अपने सगे संबंधियों की आत्मा शांति के लिए गंगा में दीपदान भी किया था। पश्चिमी उत्तर प्रदेश का प्रसिद्ध तिगरी गंगा का मेला कब शुरू हुआ, इसका कोई सरकारी रिकार्ड नहीं है। जिला पंचायत के पास भी इसकी कोई जानकारी नहीं है। मान्यता है कि मेले की शुरुआत त्रेता युग में हुई थी। तब यह मेला गढ़ के प्राचीन नक्का के कुंए के आसपास लगता था लेकिन धीरे-धीरे गंगा की धार की दिशा बदलती गई और मेला तिगरी की तरफ बढ़ता गया। गंगा के दूसरी तरफ भी मेला लगने लगा। मेले ने वृहद रूप ले लिया और श्रद्धालुओं के बीच मान्यता भी बढ़ गई। अब मेले में उत्तर प्रदेश के साथ ही दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान व आसपास अन्य कई प्रदेशों से भी श्रद्धालु पहुंचते हैं। लगातार पांच दिन तक श्रद्धालु यहां डेरे बनाकर रुकते हैं। कार्तिक पूर्णिमा स्नान के बाद श्रद्धालु घरों की ओर वापस लौट जाते हैं। मेले में हर साल दस लाख से अधिक श्रद्धालु गंगा स्नान करने के लिए पहुंचते हैं। तिगरी निवासी पुरोहित पंडित गंगासरन के मुताबिक बुजुर्गों की माने तो यह मेला त्रेता युग से लगता आ रहा है। पुराने बुजुर्ग बताते हैं कि श्रवण कुमार अपने नेत्रहीन माता-पिता को कंधे पर लादकर त्रेता युग में तीर्थ यात्रा कराने के लिए निकले थे। तब वे कार्तिक माह की एकादशी को नग के कुएं पर रुके थे। श्रवण कुमार का माता-पिता के प्रति सेवाभाव देखने के लिए हजारों की संख्या में लोग यहां जमा हुए थे, तभी से मेला लगता आ रहा है। बताया कि पांडवों ने भी अपने दिवंगत परिजनों की आत्मा शांति के लिए यहां पूर्णिमा से एक दिन पहले गंगा में दीपदान किया था। तभी से मृत आत्माओं की शांति के लिए यहां हर साल कार्तिक पूर्णिमा से एक दिन पहले हजारों की संख्या में लोग अपने परिजनों की याद में दीपदान करने आते हैं।
ऐसे करते हैं दीपदान
तिगरी निवासी पुरोहित पंडित गंगा सरन शर्मा के मुताबिक मृत आत्माओं की शांति के लिए गंगा में दीपदान किया जाता है। दिवंगतों के परिजन गंगा स्नान कर झोपड़ी व चटाई में दीपक जलाकर रखते हैं व फिर गंगा में छोड़ देते हैं। चटाई पर रखा होने की वजह से दीपक गंगा में तैरने लगता है। एक साथ हजारों दीपक के गंगा में तैरने का नजारा भी यहां विशेष आकर्षण का केंद्र रहता है।