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देश में मंडल बनाम कमंडल की राजनीति की कवायद, रामचरितमानस से 2024 का रण है निशाना?

नई दिल्ली : क्या धर्मग्रंथ रामचरितमानस के बहाने बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में नए सियासी पन्ने बनाने की कोशिश हो रही है? क्या 2024 में बीजेपी से मुकाबले के लिए वोटों के ध्रुवीकरण की बिसात बिछाई जा रही है? क्या रामचरितमानस के बहाने देश में मंडल बनाम कमंडल के नए वर्जन की राजनीति को सामने लाने की कवायद की जा रही है? ये तमाम सवाल उठे जब रामचरितमानस के बहाने एक के बाद एक लगातार बयानों के तीर चले।

ऐसे हुआ विवाद शुरू
विवाद की शुरुआत बिहार से हुई। वहां आरजेडी एमएलए और शिक्षा मंत्री चंद्रशेखर ने रामचरितमानस पर कमेंट किया। उनके बयान से गठबंधन तक में विवाद उठे लेकिन पार्टी उनके साथ खड़ी रही। अभी यह विवाद थमा भी नहीं था कि उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के नेता स्वामी प्रसाद मौर्य ने रामचरितमानस की चौपाई का हवाला देकर टिप्पणी की। उनके सपोर्ट में अखिलेश यादव आए तो बीजेपी ने उन्हें हिंदू विरोधी कहा। वहीं, मायावती से इस विवाद से दूरी बनाते हुए एसपी और बीजेपी दोनों को जानबूझकर आपसी मिलीभगत से इस विवाद को खड़ा करने का आरोप लगाया। लेकिन यह विवाद थमने का नाम नहीं ले रहा है।

क्या मंडल वापसी की आहट है?
रामचरितमानस के बहाने हिंदी पट्टी में मंडल बनाम कमंडल की वापसी की आहट भी मानी जा रही है। एसपी-आरजेडी जैसे दल जहां इस बहाने अगड़ा बनाम पिछड़ा की ध्रुवीकरण करने की कोशिश कर रही हैं, वहीं इसे काउंटर करने के लिए बीजेपी इसे समग्र रूप से हिंदू अपमान की मिसाल बता रही है।एक पक्ष रामचरितमानस के बहाने पिछड़ों-दलितों को एक करने की पूरी कोशिश में लगा हुआ है। बीजेपी को इसका अहसास है, इसलिए वह वक्त रहते इसे काउंटर करने के लिए आक्रामक है।

90 के दशक में हुआ था राजनीतिक बदलाव
हिंदी पट्टी में सालों से सवर्णों के हाथों में सत्ता में रहने के बाद 90 के दशक में मंडल युग में पिछड़ों के बीच ट्रांसफर हुई। 90 के दशक में कमंडल से पहले मंडल आई थी। पिछड़ों को आरक्षण देने वाली मंडल कमीशन की अनुशंसा लागू होने के बाद देश की राजनीति पर गहरा प्रभाव पड़ा और अगड़े बनाम पिछड़े की लड़ाई ने इसकी शक्ल को पूरी तरह बदल दिया।

ठीक उसी समय प्रदेश में ही अयोध्या में बाबरी मस्जिद को गिराने जैसी घटना और जय श्री राम के नाम पर राजनीति से कमंडलवाद भी उफान पर आया। मंडल रथ के सवार पर लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार, मुलायम सिंह यादव, मायावती जैसे नेताओं की भी राष्ट्रीय फलक पर जोरदार एंट्री हुई। बीजेपी का भी यहीं से देश की राजनीति में मजबूत हस्तक्षेप भी शुरू हुआ और कांग्रेस इन राज्यों में हाशिए पर जाने लगी।

ओबीसी में हुआ बड़ा विभाजन
राजनीति में तेजी से बदलाव हुआ, लेकिन फिर कुछ सालों बाद ओबीसी के अंदर भी कई खाने बनने लगे। दलितों का उभार हुआ। यादव-मुस्लिम के गठजोड़ के बीच ओबीसी में बड़ा विभाजन हुआ जिसका बड़ा हिस्सा 2014 के बाद से बीजेपी के पास चला गया। दलितों का भी एक वर्ग बीजेपी के साथ जुड़ा। इससे इन राज्यों में बीजेपी बेहद मजबूत दिखने लगी। साथ ही हिंदूत्व 90 के दशक की अपेक्षा और मजबूत हुआ।

ओबीसी-दलित वोट को अपने पक्ष में करने की कवायद
बीजेपी के खिलाफ खड़े इन विपक्षी दलों को लगता है कि उनके ‘ग्रेटर कमंडल कार्ड’ को तब तक काउंटर नहीं किया जा सकता है जब तक जातियों के आधार पर बीजेपी का वोट न टूटे। दरअसल, बीजेपी के लिए जानकार कहते हैं कि कमंडल (समग्र हिंदू एकता) उसकी सबसे मजबूती है और मंडल उसकी सबसे कमजोरी रही है। 2015 में आरक्षण के नाम पर ही बिहार में लालू प्रसाद और नीतीश कुमार ने बीजेपी को बड़ी शिकस्त दी थी।


अभी पिछले कुछ दिनों से जातीय जनगणना के बहाने रामचरितमानस की तरह ओबीसी वोटरों को अपने पक्ष में करने की कवायद है। बिहार सरकार ने जातीय जनगणना को शुरू भी कर दिया है और इसी साल जुलाई तक इसके आंकड़े आ जाने की उम्मीद है। इसके बाद आरजेडी-जेडीयू दलों ने ओबीसी आरक्षण की सीमा बढ़ाने के संकेत दिए हैं। अखिलेश यादव हो या मायावती यह सभी जातीय समीकरण के पक्ष में है और बीजेपी इसका उग्र विरोध नहीं कर पा रही है। कुल मिलाकर रामचरितमानस हो या जातीय जनगणना 2024 से पहले सियासी बिसात बिछाने के ऐसे कई हथकंडे आने वाले दिनों में देखने को मिल सकते हैं।

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