हार्ट अटैक या जहर देकर मारा गया? ताशकंद में लाल बहादुर शास्त्री से जुड़ा वो राज जो कभी नहीं खुला

शास्त्री की छवि साफ-सुथरी और बेदाग थी। अपनी सादगी के लिए वह मशहूर थे। जवाहरलाल नेहरू के निधन के बाद 9 जून 1964 को शास्त्री ने प्रधानमंत्री का पदभार संभाला था। वह करीब 18 महीने तक देश के पीएम रहे। उनके नेतृत्व में भारत ने 1965 की जंग में पाकिस्तान को करारी शिकस्त दी थी। तब अयूब खान पाकिस्तान के राष्ट्रपति थे। नेहरू के निधन के समय भारत और पाकिस्तान कश्मीर विवाद के शांतिपूर्ण समाधान के मुहाने पर खड़े थे। अयूब खान फील्ड मार्शल थे। अक्टूबर 1964 में काहिरा में एक बैठक हुई थी। इसमें शामिल होने के बाद शास्त्री कुछ देर के लिए कराची में ठहरे थे। इसी दौरान अयूब खान से उनकी पहली मुलाकात हुई थी। शास्त्री से मिलकर अयूब खान कुछ खास प्रभावित नहीं हुए। शास्त्री की सादगी को देख तानाशाह ने कश्मीर को बातचीत की जगह जबरन हासिल कर लेने का मुगालता पाल लिया था।
अयूब खान ने अगस्त 1965 में घाटी में घुसपैठियों को भेज दिया। धोती पहनने वाले कम कद के भारतीय पीएम को हल्के में लेना अयूब को भारी पड़ा। जब पाकिस्तानी फौजों ने चंबा सेक्टर में हमला किया तो शास्त्री ने पंजाब में मोर्चा खोलने की मंजूरी दे दी। भारतीय फौजें लाहौर कूच कर गईं। भीषण संग्राम हुआ। भारत ने पाकिस्तान की एकड़ों-एकड़ जमीन कब्जे में ले ली थी। अयूब खान को अपनी गलती का एहसास हो चुका था। संयुक्त राष्ट्र की पहल पर 22 सितंबर से संघर्ष विराम हुआ।
इसी के बाद ताशकंद का चैप्टर शुरू होता है। 1965 की इस जंग के बाद भारत और पाकिस्तान में कई दौर की वार्ता हुई। आखिरकार दिन और जगह तय हुई। समझौते की पेशकश सोवियत संघ के तत्कालीन पीएम एलेक्सेई कोजिगिन ने की थी। करार में कहा गया था कि भारत-पाकिस्तान की सेनाएं जंग से पहले वाली स्थिति पर चली जाएंगी। इसमें युद्धबंदियों की रिहाई के साथ द्विपक्षीय संबंध सुधारने की भी जिम्मेदारी तय की गई थी। यह समझौता कहता था कि दोनों देश एक-दूसरे के आंतरिक मसलों से दूर रहेंगे। इसमें आर्थिक और कूटनीतिक रिश्ते बहाल करने संबंधी शर्तें भी थीं। इस समझौते के लिए ताशकंद में 10 जनवरी 1966 का दिन तय हुआ था। इसके तहत 25 फरवरी 1966 तक दोनों देशों को अपनी-अपनी सेनाएं सीमा रेखा से पीछे हटानी थीं। समझौते पर हस्ताक्षर करने के बाद 11 जनवरी की रात में रहस्यमय परिस्थितियों में शास्त्री चल बसे।
इस समझौते पर हस्ताक्षर करने के बाद शास्त्री दबाव में थे। इतिहासकार कहते हैं कि पाकिस्तान को हाजी पीर और ठिथवाल वापस देने की वजह से उन्हें देश में आलोचनाओं का सामना करना पड़ रहा था। तब वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैयर उनके प्रेस सलाहकार थे। नैयर ने ही शास्त्री के निधन की खबर उनके घरवालों को बताई थी। बीबीसी को दिए इंटरव्यू में उन्होंने कहा था कि हाजी पीर और ठिथवाल को पाकिस्तान को दिए जाने से शास्त्री की पत्नी खासी नाराज थीं। यहां तक उन्होंने शास्त्री से फोन पर बात करने से भी मना कर दिया था। इस बात से शास्त्री को बहुत चोट पहुंची थी। अगले दिन जब शास्त्री के गुजर जाने की खबर मिली तो पूरे देश के साथ वह भी सन्न रह गई थीं।
नैयर ने अपनी किताब ‘बियान्ड द लाइन’ में उस रात की कुछ बातें लिखी हैं। वह बताते हैं कि निधन से पहले शास्त्री बेचैन थे। लोगों ने उन्हें कमरे में टहलते देखा था। नैयर अपने कमरे में सो रहे थे। किसी ने उनका दरवाजा खटखटाया। दरवाजा खोलने पर एक रूसी महिला खड़ी थी। उसने बताया कि शास्त्री की हालत नाजुक है। शास्त्री के पास पहुंचने पर उनके नजदीक सोवियत संघ के पीएम एजेक्सी खड़े थे। उन्होंने ही बताया कि शास्त्री गुजर गए हैं। कई लोग जहां दावा करते हैं कि शास्त्री जी को जहर देकर मारा गया। तो, तमाम कहते हैं उनकी मौत दिल का दौरा पड़ने से हुई।