अध्यादेश क्या होता है? सुप्रीम कोर्ट के फैसले को केंद्र सरकार ने कैसे पलट दिया? हर पेच समझिए

क्या अध्यादेश लाकर सुप्रीम कोर्ट का फैसला पलटा जा सकता है? क्या अब दिल्ली सरकार के पास कोई कानूनी विकल्प नहीं बचा? क्या राष्ट्रपति के हाथों जारी होने वाला अध्यादेश कानून बन जाता है? संसद की क्या भूमिका होती है? इन्हीं सब सवालों के जवाब जानते हैं।
अध्यादेश क्या है? कौन जारी करता है?
संविधान के अनुच्छेद 123 में राष्ट्रपति के अध्यादेश जारी करने की शक्तियों का वर्णन है। अगर कोई ऐसा विषय हो जिस पर तत्काल कानून बनाने की जरूरत हो और उस समय संसद न चल रही हो तो अध्यादेश लाया जा सकता है। अध्यादेश का प्रभाव उतना ही रहता है, जितना संसद से पारित कानून का होता है। इन्हें कभी भी वापस लिया जा सकता है। अध्यादेश के जरिए नागरिकों से उनके मूल अधिकार नहीं छीने जा सकते। केंद्रीय मंत्रिमंडल की सलाह पर राष्ट्रपति अध्यादेश जारी करते हैं। चूंकि कानून बनाने का अधिकार संसद के पास है। ऐसे में अध्यादेश को संसद की मंजूरी चाहिए होती है। अध्यादेश को संसद में छह सप्ताह के भीतर पारित कराना होता है। अध्यादेश जारी करने के छह महीने के भीतर संसद सत्र बुलाना अनिवार्य है।
राज्यों में गवर्नर अध्यादेश जारी कर सकते हैं। इसके लिए संविधान के अनुच्छेद 213 में व्यवस्था है। शर्तें वही रहती हैं कि विधानसभा का सत्र न चल रहा हो। अध्यादेश को जारी करने के छह महीने के भीतर विधानसभा से पारित भी कराना होता है।
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क्या पलटा जा सकता है सुप्रीम कोर्ट का फैसला?
संसद के पास कानून बनाकर अदालत के फैसले को पलटने की शक्तियां हैं। हालांकि, कानून सीधे तौर पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले का विरोधाभासी नहीं हो सकता। कानून में अदालत के फैसले की सोच को एड्रेस करना जरूरी है। मतलब यह कि फैसले के आधार को हटाता हुआ कानून पारित हो सकता है। जुलाई 2021 के एक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि जिस दोष की ओर इशारा किया गया है उसे इस तरह ठीक किया जाना चाहिए था कि दोष को इंगित करने वाले निर्णय का आधार हटा दिया गया हो।
दिल्ली सरकार की शक्तियों के मसले पर सुप्रीम कोर्ट की दो संविधान पीठ सुनवाई कर चुकी हैं। दोनों बार संविधान के अनुच्छेद 239A की व्याख्या की गई। 1991 में जब 239A अस्तित्व में आया तब संसद ने Government of National Capital Territory of Delhi Act, 1991 भी पास किया। इसमें विधानसभा और दिल्ली सरकार के कामकाज का ढांचा तैयार किया गया। SC की संविधान बेंच ने अपने फैसले में ‘लोकतंत्र और संघवाद के सिद्धांत’ को संविधान के मूल ढांचे का हिस्सा बताया था। चूंकि अदालती फैसले का आधार संवैधानिक प्रावधानों में है, इसपर बहस हो सकती है कि GNCTD एक्ट, 1991 में बदलाव से फैसले का असर खत्म हो जाएगा या नहीं।
संसद कोई ऐसा कानून नहीं बना सकती, न ही संविधान में ऐसा संशोधन कर सकती है जिससे संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन होता हो। 2018 में बहुमत से संविधान पीठ ने फैसला दिया था कि दिल्ली को भले ही पूर्ण राज्य का दर्जा नहीं दिया जा सकता, वहां संघवाद का सिद्धांत लागू होगा।
क्या अध्यादेश को चुनौती दी जा सकती है?
सुप्रीम कोर्ट ने RC कूपर बनाम भारत संघ (1970) में कहा था कि राष्ट्रपति के निर्णय को चुनौती दी जा सकती है। इस आधार पर कि ‘तत्काल कार्रवाई की जरूरत नहीं थी।’ अध्यादेश को चुनौती दी जा सकती है। फिर सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ को तय करना होगा कि मामले पर संविधान बेंच बनाए या नहीं। कुल मिलाकर दिल्ली में पावर की खींचतान अभी लंबी चलने वाली है।