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सीलबंद लिफाफे में होता क्या है? सरकार ने थमाया तो सुप्रीम कोर्ट नाराज हो गया

नई दिल्ली: मैं व्यक्तिगत रूप से बंद लिफाफे में जवाब देने के खिलाफ हूं। कोर्ट में पारदर्शिता होनी चाहिए… यह आदेशों को अमल में लाने को लेकर है। इसमें गोपनीय क्या हो सकता है?… ये शब्द देश की सबसे बड़ी अदालत सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ के हैं। वन रैंक वन पेंशन (OROP) के तहत पूर्व सैन्य कर्मियों को बकाये का भुगतान करने के संबंध में केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट को एक लिफाफा थमाया तो CJI नाराज हो गए। उन्होंने इस तरह सीलबंद लिफाफे में जवाब स्वीकार करने से इनकार कर दिया। चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस पी एस नरसिम्हा और जस्टिस जे बी पारदीवाला की पीठ ने कहा, ‘हमें सुप्रीम कोर्ट में सीलबंद लिफाफे में जवाब दिए जाने के चलन पर रोक लगाने की जरूरत है… यह मूल रूप से निष्पक्ष न्याय की प्रक्रिया के खिलाफ है।’ SC ओआरओपी बकाये के भुगतान को लेकर ‘इंडियन एक्स-सर्विसमैन मूवमेंट’ की याचिका पर सुनवाई कर रहा था। इससे पहले 13 मार्च को कोर्ट ने चार किस्तों में बकाये का पेमेंट करने के फैसले पर सरकार की खिंचाई की थी। वैसे, यह पहली बार नहीं है जब सुप्रीम कोर्ट ने सीलबंद लिफाफे के इस्तेमाल पर नाराजगी जताई हो। ऐसे में यह समझना जरूरी हो जाता है कि लिफाफे वाले ट्रेंड पर कोर्ट को इतनी आपत्ति क्यों है?

खुला लिफाफा क्यों नहीं?
हाल ही में हिंडनबर्ग-अडानी केस में सेबी की कार्यप्रणाली की समीक्षा के लिए एक्सपर्ट कमेटी के लिए सरकार ने प्रस्तावित नामों को सीलबंद लिफाफे में ही दिया था। पिछले साल केरल के एक न्यूज चैनल पर बैन के मामले में कोर्ट ने कहा था कि दूसरे पक्ष को जानकारी दिए बिना सीलबंद लिफाफे में जानकारी देने का औचित्य क्या है? राष्ट्रीय सुरक्षा का हवाला देते हुए सरकार ने चैनल का लाइसेंस रिन्यू करने से मना कर दिया था। वजह समझाने के लिए सरकार ने एक बंद लिफाफे में इंटरनल फाइल कोर्ट के साथ साझा करनी चाही थी। तब जस्टिस चंद्रचूड़ ने आपत्ति जताते हुए कहा था कि सरकार इस फाइल को चैनल के साथ ओपन करना क्यों नहीं चाहती है? उन्होंने कहा था कि बच्चों के यौन शोषण जैसे कुछ अपवाद वाले मामलों में ही कोर्ट सीलबंद लिफाफे में मटेरियल स्वीकार करता है।

सुप्रीम कोर्ट में सीलबंद लिफाफा कितना जरूरी

दरअसल, सुप्रीम कोर्ट और भारत के लोअर कोर्ट में भी सील कवर जानकारी देने का चलन है। अदालतें सरकारी एजेंसियों से सील कवर में जानकारियां स्वीकार करती रही हैं। इस लिफाफे के भीतर की जानकारी केवल जज के पास ही रहती है। सील्ड कवर को लेकर कोई स्पेशल कानून तो नहीं है लेकिन सुप्रीम कोर्ट रूल्स के ऑर्डर XIII के नियम 7 और भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872 के सेक्शन 123 से SC को अधिकार मिलते हैं। रूल 7 कहता है कि चीफ जस्टिस या कोर्ट उसी जानकारी को गुप्त रख सकते हैं जिसका प्रकाशन जनहित में न हो। जब तक चीफ जस्टिस की अनुमति न हो किसी भी पार्टी को जानकारी नहीं दी जा सकती है।

सेक्शन 123 के तहत सरकार के अप्रकाशित दस्तावेजों को सुरक्षा मिली हुई है और सरकारी कर्मचारी को ऐसी जानकारी देने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता है। चल रही जांच को लेकर जानकारी भी गोपनीय रखी जा सकती है।NRC और राफेल का उदाहरण

– 2018 में तत्कालीन चीफ जस्टिस रंजन गोगोई ने असम नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजंस के पूर्व कोऑर्डिनेटर को दस्तावेज के मसौदे से बाहर किए गए लोगों पर रिपोर्ट सीलबंद लिफाफे में देने को कहा था।
– इस सिद्धांत का इस्तेमाल BCCI सुधार मामले, भीमा कोरेगांव केस, आलोक वर्मा और राकेश अस्थाना वाले CBI vs CBI केस और रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद केस में भी हुआ था। राफेल डील पर कीमतों को लेकर सवाल उठे तो सरकार ने सील कवर में डीटेल सौंपी थी।
– इसके अलावा कुछ बंद कमरे में सुनवाई के दौरान यौन उत्पीडन के मामले आते हैं। ऐसे मामलों में गोपनीयता को काफी तवज्जो दी जाती है जिससे दस्तावेज और दलीलें कमरे के बाहर न जाएं।
– सील कवर का चलन कब से शुरू हुआ, इसको लेकर स्पष्ट तारीख तो नहीं पता है। हालांकि बंद कमरे में सुनवाई के दौरान सौंपे गए दस्तावेज दूसरे पक्ष से भी शेयर होते हैं।

– राफेल केस जैसे राष्ट्रीय सुरक्षा के मामले में दूसरे पक्ष के साथ दस्तावेज शेयर नहीं किए जाते हैं। इसे कोर्ट सुपर-सीक्रेट मानता है।
एक्सपर्ट और जज मानते हैं कि भारत की न्याय प्रणाली में सीलबंद लिफाफे का इस्तेमाल पारदर्शिता और जवाबदेही का उल्लंघन है। इसे लंबे समय के लिए ठीक नहीं माना जाता है। न्यायिक प्रक्रिया के मामले में तथ्य या सबूत को दोनों पार्टियों के साथ शेयर किया जाना जरूरी होता है। यह भी दलील दी जाती है कि लिफाफा सिस्टम निष्पक्ष सुनवाई और न्यायिक निर्णय में दखल देता है। अक्सर इसे मनमाना कहा जाता है।

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