देश

विदेशी यूनिवर्सिटी से क्या फायदा होगा बच्चों का और भारत का?

रामानन्द
यूनिवर्सिटी ग्रांट्स कमिशन ने हाल ही में विदेशी विश्वविद्यालयों के भारत में शैक्षणिक संस्थान खोलने से जुड़ा एक मसौदा जारी किया है। इसमें कहा गया है कि विश्वविद्यालय अनुदान आयोग कुछ शर्तों के साथ विश्व के 500 शीर्ष विश्वविद्यालयों को भारत में अपने परिसर खोल कर संचालित करने की अनुमति देगा। भारत सरकार की अपनी रिपोर्ट और अनेक अध्ययनों से यह बात सामने आती रही है कि भारत के लोग अपनी आय का एक बड़ा हिस्सा शिक्षा पर खर्च करते हैं। इसी आय से एक बड़ा हिस्सा उन देशों में भी जा रहा है जहां भारत के स्टूडेंट्स पढ़ने जा रहे हैं। यह प्रक्रिया दशकों से चल रही है जिसके कारण न केवल देश की आर्थिक क्षति हो रही है बल्कि इसका मानव संसाधन भी जाया हो रहा है।

पहले भी हुए प्रयास
ऐसा नहीं है कि पिछली सरकारों ने इसके लिए प्रयास नहीं किए।

  • इस संबंध में पहला प्रयास 1995 में हुआ था।
  • 2005-2006 में फिर कोशिश हुई, मगर यह भी निष्कर्ष तक नहीं पहुंच पाया।
    आखिरी बार ऐसी कोशिश 2010 में हुई जब इससे संबंधित बिल संसद में पेश किया गया था। तब उसे फिर स्टैंडिंग कमेटी को भेज दिया गया।
  • उसके बाद इस विषय पर 2016 से चर्चा जरूर होती रही मगर कोई ठोस कदम नहीं दिखा।

राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 में भी इस पर चर्चा हुई। इस बीच कोविड-19, यूक्रेन युद्ध और अन्य अनुभवों ने भी इस धारणा को पुख्ता किया कि भारतीय स्टूडेंट्स को भारत में ही अधिकतम अवसर मिलने चाहिए। अगर भारतीय छात्रों के विदेश में उपलब्ध शैक्षणिक विकल्पों को देखें तो पाएंगे कि अधिकतर स्टूडेंट्स मध्यम या निम्न मध्यम संस्थानों की तरफ ही रुख करते हैं। इस दृष्टि से यह वास्तव में अच्छा कदम है कि विदेशी संस्थानों को भारत में शैक्षणिक परिसर खोलने के लिए नियमों में परिवर्तन किए जा रहे हैं। मौजूदा व्यवस्था इस बात के लिए बधाई की पात्र है कि उसने वह कदम फिर से उठाने का विचार किया जो पहले कई बार असफल हो गया था।

भारत में डिजिटल शिक्षा ने भी विदेशी विश्वविद्यालयों और भारतीय छात्रों के बीच की दूरी को काफी कम किया है। आज के समय में भारतीय कैंपसों में अनेक ऐसे छात्र मिलेंगे जिन्होंने विदेशी संस्थानों से ऑनलाइन कोर्स किया है। यहां तक कि कुछ संस्थानों ने डिस्टेंस मोड में भी कोर्स संचालित करने का प्रयास किया, जिस पर बाद में नियामक संस्थाओं की ओर से हस्तक्षेप किया गया।

यह बात पहले भी कई बार स्पष्ट हो चुकी है कि भारत की बढ़ती शैक्षणिक आवश्यकताओं को उपलब्ध भारतीय शैक्षणिक संस्थान पूरा करने में असमर्थ हैं। यह असमर्थता केवल गुणात्मक ही नहीं, मात्रात्मक भी है। भारत की जनसंख्या और हर साल निकलने वाले छात्रों के अनुपात में भारत में शैक्षणिक संस्थान नहीं हैं। यही कारण है कि भारत सरकार पिछले कई वर्षों से औद्योगिक समूहों से उच्च शिक्षा में निवेश का आग्रह करती रही है। विदेशी शैक्षणिक संस्थानों को भारत बुलाना उसी कड़ी में अगला कदम है।

अगर विश्व के टॉप 100 संस्थान यहां अपना कैंपस खोलते हैं तो भारतीय शैक्षणिक परिसरों के लिए यह अच्छा अनुभव होगा। लेकिन यदि मध्यम श्रेणी के संस्थान (100-500 रैंक वाले) भी आते हैं तो भारत के लिए आर्थिक और अन्य दृष्टिकोणों से लाभकारी ही होगा क्योंकि भारत के छात्र इन्हीं संस्थानों में पढ़ने बाहर जा रहे हैं। यह भारत की मुद्रा को न केवल बाहर जाने से रोकेगा बल्कि भारतीय छात्रों को भारत में कम खर्च में बेहतर विकल्प देगा।

कैसी है तैयारी
अब सवाल उठता है कि क्या मौजूदा व्यवस्था इस बदलाव के लिए तैयार है? इस प्रश्न के लिए हमें राष्ट्रीय शिक्षा नीति की तरफ देखना होगा जो तमाम तरह के बुनियादी बदलावों की बात करती है। इनमें से एक नियामक संस्थाओं में सामंजस्य स्थापित करना भी है।

  • अभी भी भारत में एक विश्वविद्यालय को चलाने के लिए अलग-अलग नियामक संस्थानों से अनुमति लेनी पड़ती है। यह प्रक्रिया बेहद खर्चीली और थकाऊ है।
  • विभिन्न नियामक संस्थानों के बीच सामंजस्य स्थापित करने के लिए एक संस्था (HECI) की संस्तुति राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 में की गई है, मगर अभी भी वह धरातल पर उतर नहीं पाई है।
  • कुछ नियामक संस्थाएं ऐसी हैं जिनका शिक्षा से कोई लेना नहीं, मगर कोर्स चलाने के लिए उनसे भी अनुमति लेनी पड़ती है।
  • भारत में नियामक संस्थाओं की छवि कभी भी बहुत सकारात्मक नहीं रही है। इसकी एक वजह इसका केंद्रीकृत स्वरूप और पारदर्शिता की कमी भी है।
  • हाल के वर्षों में तकनीक के उपयोग और राष्ट्रीय नीति में उल्लिखित नियमों को पालन करने की बाध्यता ने काफी कुछ बदला है। यही कारण है कि इस बार के मसौदे से कुछ आस बंधी है कि यह अपने उद्देश्य में सफल होगा।

कुछ असमंजस
इस मसौदे में विश्वविद्यालय स्थापना, अध्यापकों की नियुक्ति, प्रवेश आदि विषयों पर तो चर्चा की गई है मगर बहुत से विषयों पर जानकारी नहीं दिखती है।

  • क्या ये विश्वविद्यालय राष्ट्रीय शिक्षा नीति में उल्लिखित सामाजिक-आर्थिक रूप से पिछड़े समूहों के लिए की गई व्यवस्था का पालन करेंगे या अपनी कोई अन्य व्यवस्था बनाएंगे?
  • एक प्रश्न भाषा को लेकर भी है क्योंकि मसौदे में इस विषय का कोई उल्लेख नहीं है जबकि शैक्षणिक प्रक्रिया में भाषा एक प्रमुख घटक है।

प्रस्तुत मसौदा ऐसे कई प्रश्नों पर अभी या तो चुप है या कोई साफ उत्तर नहीं देता है। फिर भी भारत की शैक्षणिक जरूरतों की नजर से यह एक महत्वपूर्ण कदम है। इससे देश के शैक्षणिक लक्ष्यों को पूरा करने में आसानी अवश्य होगी।

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button