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चार नेशनल अवॉर्ड, 10 फिल्‍मफेयर! के. विश्‍वनाथ के रग-रग में था सिनेमा, कहानी जान हो जाएंगे कायल

Sankarabharanam/Sagara Sangamam… जब यह फिल्म 1980 में रिलीज हुई थी तो ये एक आइकॉनिक मूवी बन गई, जिसे दर्शकों ने बार-बार देखा। इसका खूबसूरत स्क्रीनप्ले, शानदार डायरेक्शन और कमल हासन की बेहतरीन परफॉर्मेंस। इसे के. विश्वनाथ ने लिखा और डायरेक्ट किया था। इसमें इंडियन क्लासिकल म्यूजिक को जिया गया था। जब ये रिलीज हुई तो थिएटर खाली थे, लेकिन वर्ड-ऑफ-माउथ पब्लिसिटी की वजह से ये 25 हफ्ते तक चली। इस तेलुगू मूवी को बेस्ट इंडियन मूवीज में से एक के रूप में सराहा गया और के. विश्वनाथ इस फिल्म के लिए चार नेशनल अवॉर्ड जीतकर लेजेंड बन गए थे। सिर्फ यही नहीं, उन्हें पद्म श्री, दादा साहब फाल्के और 10 फिल्मफेयर अवॉर्ड से भी नवाजा गया था। हमारे फिल्मी फ्राइडे सीरीज में जानिए उनके शानदार सफर के बारे में।

के. विश्वनाथ के मुरीद थे सब

‘स्वाति किरणम’, ‘स्वर्ण कमलम’, ‘श्रुतिलायलु’ और ‘स्वराभिषेकम’ सहित कई हिट मूवीज के कारण, के. विश्वनाथ एक आइकन बन गए थे, जिन्होंने सिनेमा में म्यूजिक की अहमियत पर प्रकाश डाला। उन्होंने तमिल और तेलुगू के अलावा हिंदी फिल्मों में भी काम किया। ज्ञान और आर्ट-क्राफ्ट की समझ की वजह से सिर्फ एक्टर्स ही नहीं, फिल्ममेकर्स, टेक्नीशियन्स और प्रोड्यूसर्स भी उनका सम्मान करते थे। वो ऐसा सिनेमा बनाते थे, जिससे दर्शक इमोशनल कनेक्ट हो जाते थे और उनकी इसी खूबी के सब मुरीद थे।

ऐसे हुई थी करियर की शुरुआत

संगीत निर्देशक का जन्म 19 फरवरी 1930 को पेदापुलिवरु, गुंटूर जिले में हुआ था और उन्होंने चेन्नई के वोहिनी स्टूडियो में एक साउंड रिकॉर्डिस्ट के रूप में अपना करियर शुरू किया था। वह एक फिल्म निर्देशक बनना चाहते थे और 1951 में तेलुगू-तमिल फिल्म ‘पत्थला भैरवी’ के लिए केवी रेड्डी के असिस्टेंट डायरेक्टर बन गए। उन्हें 1965 में तेलुगू फिल्म ‘आत्मा गोवरम’ के साथ निर्देशक के रूप में शुरुआत करने का मौका मिला, जिसमें अक्किनेनी नागेश्वर राव, कंचना और राजश्री ने एक्टिंग की और बाकी इतिहास गवाह है।

समय से आगे थीं के. विश्वनाथ की फिल्में

‘सिरी सिरी मुव्वा’ (1976) ने शिल्प के बारे में के. विश्वनाथ की समझ को पेश किया था। फिर ‘शंकरभरम’ (1980) ने उनकी महारत को साबित कर दिया। वास्तव में, निर्देशक के. विश्वनाथ की कई फिल्में अपने समय से बहुत आगे थीं। उन्होंने मानवीय रिश्तों और सामाजिक मुद्दों को सक्रिय रूप से तलाशना शुरू किया और उनकी हर एक फिल्म ने दर्शकों के साथ एक जुड़ाव बनाया। अगर उन्होंने ‘सप्तपदी’ में छुआ-छूत की बात की तो ‘सुभोदायम’ और ‘स्वयंकृषि’ में योग्य शारीरिक श्रम के सम्मान पर प्रकाश डाला।

विधवा पुनर्विवाह से लेकर दहेज प्रथा तक पर बनाईं फिल्में

‘स्वाति मुथ्यम’ के निर्देशक ने ऐसी फिल्में भी बनाईं, जिनमें महिलाओं के साथ होने वाले दुर्व्यवहार और भेदभाव जैसे मुद्दों को सामने लाया गया। उदाहरण के लिए, ‘स्वाति मुथ्यम’ में कमल हासन एक ऑटिस्टिक व्यक्ति की भूमिका निभाते हैं, जो एक यंग विधवा राधिका की मदद करता है, क्योंकि उसके परिवार द्वारा उसके साथ दुर्व्यवहार किया जाता है। के. विश्वनाथ ने इस फिल्म में विधवा पुनर्विवाह के महत्व पर प्रकाश डाला, जिसे समाज में कुछ लोगों द्वारा पाप माना जाता था। चिरंजीवी और सुमलता स्टारर ‘सुभलेखा’ (1982) में उन्होंने दहेज प्रथा के खतरों को दिखाया, जो अभी भी भारतीय समाज में एक महत्वपूर्ण मुद्दा है।

दिलचस्प बात यह है कि सुभाप्रदम (2010) के निर्देशक 1985 में एक्टर बने और नंदमुरी बालकृष्ण, नागार्जुन, रजनीकांत और कमल हासन जैसे कई सितारों के साथ स्क्रीन स्पेस शेयर किया। उन्हें आखिरी बार कन्नड़ मूवी में देखा गया था, जो साल 2022 में रिलीज हुई थी।

के. विश्वनाथ फिल्म इंडस्ट्री में कमल हासन और अनिल कपूर जैसे सितारों सहित कई स्टार्स के गुरु थे और उन सभी से प्यार करते थे, जिनके साथ उन्होंने काम किया था। उनके साथ काम करने वाले या उनसे मिलने वाले हर एक्टर या फिल्म निर्माता को कुछ न कुछ सलाह दी है, जिससे उन्हें अपने करियर में मदद मिली है।
के. विश्वनाथ ने 1983 में ‘शुभ कामना’ टाइटल से ‘सुभलेखा’ के रीमेक के साथ हिंदी सिनेमा में कदम रखा। उन्होंने अनिल कपूर के साथ हिंदी में ‘स्वाति मुथ्यम’ (1989) को ‘ईश्वर’ के रूप में रीमेक किया और ‘मिस्टर इंडिया’ स्टार ने शेयर किया कि के विश्वनाथ उनके गुरु थे। के. विश्वनाथ के निधन पर शोक मनाने वाली हस्तियों की सूची अंतहीन है। यहां तक कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी उन्हें भारतीय सिनेमा का दिग्गज बताते हुए दुख जताया है।

बहुमुखी और प्रतिभाशाली थे के. विश्वनाथ

के. विश्वनाथ ने जितने अवॉर्ड जीते हैं, उससे पता चलता है कि एक्टर-डायरेक्टर कितने बहुमुखी और प्रतिभाशाली थे। वो एक मास्टर क्राफ्टमैन और एक लेजेंड थे, जिनकी जगह कोई नहीं ले सकता है। वो शायद एकमात्र निर्देशक हैं, जो पैरेलल और मेनस्ट्रीम सिनेमा को सफलतापूर्वक और इस तरह से जोड़ सकते हैं, जो दर्शकों के एक बड़े वर्ग को अट्रैक्ट करेगा। उनकी फिल्मों में कॉमेडी, रोमांस, एक्शन, सेंटीमेंट, ड्रामा सहित सबकुछ है, लेकिन सामाजिक मुद्दों को भी हाइलाइट करने में कामयाब रहे। उनकी फिल्मों के किरदारों से दर्शक खुद को रिलेट कर पाते हैं और उनकी कहानियां ह्यूमन इमोशन से भरी होती है। उन्होंने सिनेमा में संगीत के महत्व पर प्रकाश डाला और अपनी कई फिल्मों में शास्त्रीय संगीत को जीवंत किया। उन्होंने कमर्शियल सिनेमा की परिभाषा बदल दी।

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