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कमजोर डॉलर और मजबूत गोल्ड, आखिर किस तरफ जा रही है दुनिया?

नई दिल्ली: सोने की कीमत (Gold Price) में पिछले छह महीने में करीब 20 फीसदी बढ़ोतरी हुई है जबकि डॉलर (Dollar) लगातार कमजोर होता जा रहा है। दुनियाभर के सेंट्रल बैंक रेकॉर्ड सोना खरीद रहे हैं जिससे सोने की कीमत रेकॉर्ड हाई के करीब है। दूसरी ओर दुनिया के कई देश डॉलर के बजाय अपनी करेंसी में ट्रेड करने पर जो दे रहे हैं। इससे डॉलर की बादशाहत को चुनौती मिल रही है। दो दशक पहले केंद्रीय बैंकों को रिजर्व में डॉलर की हिस्सेदारी 73 फीसदी हुआ करती थी जो अब घटकर 47 फीसदी रह गई है। इतना ही नहीं दुनिया के करीब 110 देशों के केंद्रीय बैंक अपनी डिजिटल करेंसी उतारना चाहते हैं। कई देश द्विपक्षीय व्यापार में डिजिटल करेंसीज के इस्तेमाल की संभावना भी तलाश रहे हैं जिससे आने वाले दिनों में डॉलर का रुतबा और कम हो सकता है। आखिर किस तरफ जा रही है दुनिया?


लेखक और ग्लोबल इनवेस्टर रुचिर शर्मा ने टाइम्स ऑफ इंडिया में एक लेख लिखा है। इसमें कहा गया है कि आज कमेंटेटर इस बात पर सहमत होंगे कि कमजोर हो रहा डॉलर अपना रुतबा नहीं खो सकता क्योंकि उसका कोई विकल्प नजर नहीं आ रहा है। लेकिन सच्चाई यह है कि कई देश डॉलर का विकल्प खोज रहे हैं और अगर अमेरिका इस बात को नजरअंदाज करता है तो उसकी मुश्किलें बढ़ेंगी। पिछले छह महीने में सोना 20 फीसदी चढ़ चुका है। इसकी वजह इनवेस्टर्स इसे महंगाई के खिलाफ हेज के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं। बल्कि गोल्ड के मुख्य खरीदार सेंट्रल बैंक्स हैं। वे अपने डॉलर के रिजर्व को कम कर रहे हैं और सोने का भंडार बढ़ा रहे हैं।

डॉलर पर बगावत

दिलचस्प बात यह है कि सोने खरीदने वाले टॉप 10 सेंट्रल बैंक्स में से नौ विकासशील देशों के हैं। इनमें रूस, चीन और भारत शामिल हैं। ये तीन देश ब्रिक्स का हिस्सा हैं जिसमें ब्राजील और साउथ अफ्रीका भी शामिल हैं। ब्रिक्स डॉलर को चुनौती देने के लिए अपनी नई करेंसी बनाने की तैयारी में हैं। फिलहाल उनका लक्ष्य अपनी करेंसी में एकदूसरे के साथ ट्रेड करना है। ब्राजील के राष्ट्रपति लूला डी सिल्वा ने हाल में चीन यात्रा के दौरान कहा था कि हर रात में खुद से पूछता हूं कि हर देश को अमेरिकी डॉलर में क्यों ट्रेड करना पड़ता है। एक विकल्प से जियोपॉलिटिक्स में बैलेंस बनाने में मदद मिलेगी।


इसलिए डॉलर के खिलाफ लड़ाई में सोना दुनियाभर के सेंट्रल बैंक्स को सबसे मजबूत हथियार है। पहले गोल्ड और डॉलर में निवेश को सुरक्षित माना जाता था। लेकिन अब स्थिति बदल गई है। अब गोल्ड में निवेश को ज्यादा सुरक्षित माना जा रहा है। मार्च में बैंकिंग संकट के दौरान सोने में लगातार तेजी रही जबकि डॉलर कमजोर हुआ। डॉलर और सोने की चाल में कभी भी इतना अंतर नहीं रहा है। सवाल यह है कि जब द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से डॉलर में ट्रेड हो रहा है तो फिर विकासशील देश अब क्यों विद्रोह करने पर उतारू हैं? इसकी वजह यह है कि अमेरिका और उसके दोस्तों ने वित्तीय प्रतिबंधों को एक हथियार के रूप में इस्तेमाल करना शुरू दिया है।

डॉलर को चुनौती

अभी 30 फीसदी देश अमेरिका, ईयू, जापान और ब्रिटेन के प्रतिबंधों का सामना कर रहे हैं। 1990 के दशक की शुरुआत में यह संख्या 10 फीसदी थी। हाल तक इस लिस्ट में छोटे देश शामिल थे। लेकिन हाल में कई बड़े और विकसित देशों ने रूस के खिलाफ प्रतिबंध लगाए हैं। रूस ने यूक्रेन पर हमला किया था। रूस के बैंकों को डॉलर आधारित ग्लोबल पेमेंट सिस्टम से अलग कर दिया गया है। अमेरिका को लगा कि रूस से लड़ने के लिए यह सबसे अच्छा हथियार है। अब फिलीपींस और थाइलैंड जैसे देशों को भी डॉलर के बिना ट्रेड करना पड़ रहा है। भारत डॉलर का मुखर विरोधी नहीं रहा है लेकिन वह भी यूएई के साथ नॉन-ऑयल ट्रेड रुपये में करने पर चर्चा कर रहा है।

समस्या यह है कि अमेरिका को लगता है कि डॉलर का कोई विकल्प नहीं है। इससे अमेरिका का आत्मविश्वास बढ़ रहा है। इसका आधार अमेरिका के संस्थानों और कानून पर दुनिया का भरोसा है। लेकिन यह भरोसा दरक रहा है। साथ ही अमेरिका की कर्ज चुकाने की काबिलियत पर भी सवाल उठ रहे हैं। डॉलर के डिफेंस के लिए लास्ट लाइन चीन है। चीन अभी एकमात्र देश है जो डॉलर के वर्चस्व को चुनौती दे सकता है। डॉलर को गोल्ड और डिजिटल करेंसी से तगड़ी चुनौती मिल रही है। ऐसे में अमेरिका को अपने फाइनेंशियल सिस्टम पर भरोसा बढ़ाने के उपाय करने चाहिए और फाइनेंशियल सुपरपावर के अपने स्टेटस को हल्के में नहीं लेना चाहिए।

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