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आविष्कारों की झड़ी, दुनिया में नाम.. ‘भारत के एडिसन’ शंकर अबाजी भिसे के बारे में जानते हैं?

नई दिल्ली: विज्ञान की दुनिया में आज भारत और उसके वैज्ञानिकों का नाम अदब से लिया जाता है। लेकिन सदी में एक ऐसा भी वैज्ञानिक हुआ जिसके आविष्कार ने दुनिया में तो तहलका मचा दिया लेकिन आज उनकी चर्चा बहुत कम होती है। 19वीं सदी में अपने करिश्माई आविष्कारों सो दुनिया को चकित करने वाले इस शख्स का नाम था शंकर अबाजी भिसे (Shankar Abaji Bhisey)। उन्हें ‘भारत का एडिसन’ भी कहा जाता है। जब भारत में विज्ञान के क्षेत्र में आविष्कार की कोई चर्चा तक नहीं होती थी तो भिसे ने खुद के प्रयासों से देश का नाम रोशन किया था। एनबीटी सुपर ह्यूमन सीरीज (NBT Super Human Series) में आज उस महान वैज्ञानिक की चर्चा करेंगे।

19 अप्रैल 1867 के बॉम्बे (अब मुंबई) में जन्मे भिसे उस दौर में ऐसे आविष्कार किए जिसकी कोई कल्पना तक नहीं कर सकता था। भिसे को इन आविष्कारों के लिए न कोई मदद मिलती थी और न ही कोई ऐसे संस्थान थे जहां से आप कुछ जानकारी हासिल कर सके। भारत आज दुनिया में टैलेंट का हब बन चुका है। लेकिन जिस दौर में भिसे ने अपने आविष्कार के बारे में दुनिया में को बताया वो अदभुत था। बॉम्बे की जिन गलियों में भिसे का जन्म हुआ था वो तंग थीं। भिसे की अंधेरे से उजाले की यात्रा काफी कठिनाई भरी रही है। वो जो भी बने खुद की प्रतिभा और मेहनत के दम पर बने थे। उन्होंने मशीनी दुनिया में जो करिश्मे किए वो जबरदस्त थे। भिसे ने एक बताया था कि उन्होंने अमेरिकी मैगजीन पढ़कर विज्ञान की तरफ रुचि हुई थी।

भिसे जब 20 साल के थे जो बॉम्बे में साइंटिफिक क्लब की स्थापना की थी। इस दौरान उन्होंने कई तरह के गैजेट बनाने की शुरुआत की थी। बॉम्बे उपनगरीय रेलवे व्यवस्था के लिए उन्होंने टैंपर प्रूफ बोतल, इलेक्ट्रिकल साइकिल, स्टेशन इंडिकेटर जैसे चीजों का डिजाइन बनाना शुरू किया था। उनके जीवन का रुख उस वक्त बदला जब उन्होंने एक ब्रिटिश जर्नल में एक ऐसे प्रतियोगिता के बारे में पढ़ा जिसमें एक मशीन डिजाइन करनी थी जो घर के सामान मसलन आटा, चावल को पैक कर दे। बस फिर क्या था भिसे के युवा मन को तो पंख लग गए। उन्होंने रात-दिन जागकर एक ऐसे मशीन का ब्लूप्रिंट तैयार किया जो शानदार था। उन्होंने इस प्रतियोगिता में सभी ब्रिटिश प्रतिभागियों को मात देते हुए जीत हासिल की। उनके मशीन की डिजाइन को सबसे ज्यादा पसंद किया गया था।

तबतक भिसे का नाम धीरे-धीरे मशूहर होने लगा था। बॉम्बे प्रशासन ने भिसे की इच्छा के अनुरूप उन्हें लंदन भेजने को तैयार हो गए। तब भिसे अपने बॉम्बे के दोस्तों से कहा था कि वह तबतक देश नहीं लौटेंगे जबतक वह सफल न हो जाएं या फिर उनके पैसे न खत्म हो जाएं। यहीं से उनके करियर का सुनहरा दौर शुरू होता है।

भिसे ने इंग्लैंड पहुंचते ही अपने मिशन में जुट गए। इस दौरान भिसे की मुलाकात दिनशा वाचा से होता है। वह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की सदस्य थे। वह एक बेहतरीन बिजनेसमैन भी थे। वो एक बेहतर टैलेंट के पारखी भी थे। एक दिन भिसे वाचा का एक पत्र दादाभाई नौरोजी को दिया। नौरोजी एक राष्ट्रवादी नेता थे और उनका इंग्लैंड में एक बड़ा व्यवसायिक करियर भी रहा था। नौरोजी भिसे की आविष्कारों की पेटेंट लिस्ट से काफी प्रभावित हुए और उनके लिए एक बिजनेस सिंडिकेट बनाने पर सहमत हुए।

आविष्कारों की लगा दी झड़ी

भिसे ने इसके बाद आविष्कारों की झड़ी लगा दी। उन्होंने एक ऐसे इलेक्ट्रॉनिक साइनबोर्ड का डिजाइन बनाया जिसे लंदन के क्रिस्टल पैलेस में दिखिया गया। भिसे का सबसे मशहूर खोज टाइप-सी कास्टिंग और कम्पोजिंग मशीन थी। इस खोज ने दुनिया में क्रांति ला दी थी। भिसे की इस मशीन से 1200 विभिन्न अक्षरों में छपाई हो सकती थी। इस खोज ने भिसे को पूरी दुनिया में मशूहर कर दिया था। भिसे की इस खोज ने उस समय मौजूद सभी छपाई मशीन से बेहतर काम किया था। भिसे ने अपने इस आविष्कार का नाम ‘भिसेटाइप’ रखा था। भिसे ने अपने आविष्कार के लिए बड़े निवेशक की तलाश थी। लेकिन 1907 में भिसे के मित्र हेनरी हिंडमैन ने कोशिश तो तमाम की लेकिन वह निवेशक लाने में असफल रहे। 1908 में भिसे बुझे दिल से बॉम्बे लौट आए थे। यहां आने के बाद वे रतन जे टाटा से मिले। यहां गोपाल कृष्ण गोखले ने भिसे को टाटा से मिलवाया था। टाटा ग्रुप ने भिसे के आविष्कारों को बनाने के लिए एक साझेदारी की। हालांकि कुछ साल बाद ये साझेदारी टूट गई। लेकिन इसके बाद भिसे एक नई दुनिया की तरफ चल पड़े। वो देश था अमेरिका। वहां भिसे ने एक ‘स्पिरिट टाइपराइटर’ बनाया था। हालांकि, भिसे को जो सम्मान मिलना चाहिए था वो उन्हें नहीं मिल पाया। 7 अप्रैल 1935 की 68 साल की उम्र में न्यूयॉर्क में निधन हो गया था।

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