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प्लास्टिक की कविता आ गई है जो देखने में बहुत सुंदर है, लेकिन उसमें कोई खुशबू नहीं होतीः कवयित्री अनामिका

हिंदी की प्रसिद्ध कवयित्री अनामिका समकालीन हिंदी कविता की सबसे चर्चित शख्सियत में शुमार की जाती हैं। उनके कविता संग्रह ‘टोकरी में दिगंत : थेरीगाथा’ के लिए उन्हें 2021 में साहित्य अकादमी सम्मान भी मिल चुका है। इन दिनों हिंदी कविता के क्षेत्र में क्या हो रहा है, खासकर महिलाएं हिंदी साहित्य में क्या कर रही हैं, इन्हीं सब मुद्दों पर अनामिका से बात की राहुल पाण्डेय ने। पेश हैं बातचीत के अहम अंश:हमने आपके मीठा बोलने के बड़े किस्से सुने हैं। इतना मीठा कैसे बोलती हैं? चीनी पीती हैं (हंसते हुए)?
कड़वाहट झेलने का एक ही उपाय है कि आदमी कड़वाहट का मुकाबला करने वाली बोली बोले। आदमी कड़वाहट को काउंटर कैसे करेगा, जब तक उसके अंदर शहद का छत्ता ना हो। फिर कुछ हम लोगों की मुजफ्फरपुर की मिट्टी का भी असर है। हमारे यहां सभी लोग आराम से बोलते हैं तो उन्हें सुनने का भी मन करता है, और यह सिर्फ मिठास की बात नहीं है। जब आप आराम से बोलते हैं तो सामने वाले को भी बोलने का मौका देते हैं। अब दिल की बात जोर-जोर से बोलने पर न तो कोई सुनेगा, न उस पर कोई बोल पाएगा।

हिंदी कविता का अभी जो परिदृश्य है, वह कैसा लगता है? खासकर पिछले कुछ वर्षों में जब इंसान एक कमरे में बंद था और चाहे-अनचाहे उसने जाने कितने दुख झेले…
इंटरनेट पर विश्व कविता और भारतीय कविताओं के बहुत सारे अनुवाद उपलब्ध हैं। अब क्या होता है कि अकेलापन तो बढ़ ही गया है। इंसान छोटे कमरे में सारा दिन इंटरनेट पर रहता है। और आप वहां के नहीं हैं जहां आप रह रहे हैं। कभी कोई सूचना मिली कि कोई चला गया, कभी नौकरी छूट गई, कभी प्रेम टूट गया। इतने बड़े-बड़े हादसे आप अपने छोटे से कमरे में कैसे झेल रहे हैं? शहर में आज किसी के पास आंख से आंख मिलाकर देखने या सीधे मुंह बोलने की फुरसत नहीं है, तो ऐसे में कविता बहुत मदद करती है। जब कोई मनुष्य नहीं होता कि जिसके कंधे पर आप सिर रखकर रो सकें तो आप इंटरनेट पर कविताएं पढ़ते हैं, उससे आपको सहारा मिलता है। जब आदमी बिलकुल अकेला होता है तो कविता का सहारा लेता है और कविता आपके अकेलेपन को, आपके पूरे होने को एक छोटे से स्पेस में कंडेंस कर देती है। तो होता क्या है कि मेरा अकेलापन आपके अकेलेपन से रूबरू होता है तो दोनों के अकेलेपन आपस में मिलकर गठबंधन बना लेते हैं और अकेलापन जाता रहता है।

यह तो यूथ की बात हुई। लेकिन इस सीन में खुद आप हैं, और भी बहुत सारे लोग हैं जो लिख रहे हैं। वे कैसा लिख रहे हैं? नए हिंदी साहित्य में कैसी क्वॉलिटी आ रही है?

आप बहुत सारी कविताएं ऐसी पढ़ेंगे कि लगेगा यह तो किसी चीज का अनुवाद है। इंटरनेट पर बहुत सारी कविताएं हैं, ऐसे में अपनी मिट्टी या अनुभव से जुड़ी कविताएं न करके उन्हीं के मॉडल पर आपको कविताएं लिखना आता है, जबकि अनुभव तो रेडीमेड नहीं होता है ना। कविताएं वही अच्छी होती हैं जो अपनी मिट्टी और अनुभव से निकली होती हैं। कुछ अपने अनुभव से लिखते हैं, मगर कुछ ऐसे भी लोग हैं जो केवल फैशन में लिखते हैं।

जो लोग फैशन में लिखते हैं, उनकी पहचान कैसे करें?

अगर आप जोर-जोर से कविता पढ़िएगा तो आपके भीतर ध्वनि उतरेगी। कुछ न कुछ आपके भीतर रह जाएगा, चाहे वह कविता का बनाया बिंब हो या लय। थोड़ी देर सब कुछ भूलकर अकेले में सोचिए कि कविता पढ़ने के बाद कोई चीज आपके पास लौटी या नहीं लौटी? अगर आपके अंदर कुछ रह गया है तो समझिए कि कविता अच्छी थी। फैशन वाली कविताओं में बड़े सुंदर शब्द होते हैं, मगर वो ऐसे ही होते हैं जैसे प्लास्टिक का गुलाब। उसमें प्लास्टिक के शब्द भरे होते हैं, इसलिए जब आप उसे पढ़ते हैं तो कुछ नहीं मिलता।

मतलब हिंदी साहित्य में अब प्लास्टिक की कविता आ गई है?
हां, प्लास्टिक की कविता आ गई है। देखने में बहुत सुंदर है, लेकिन उसमें कोई खुशबू नहीं होती। अनुभव से कविता समृद्ध होती है, जिससे लगता है कि यह कविता तो मेरे ही ऊपर है, मेरी ही कहानी है। वह अनुभव इनमें नहीं है, इसलिए ऐसी कविताएं किसी को अपनी नहीं लगतीं।

इन दिनों मातृभाषा और हिंदी भाषा पर काफी बहस हो रही है। आपका क्या कहना है?
सूत्रधार भाषा तो हिंदी रही है। इसे सूत्रधार भाषा का दर्जा इसलिए दिया गया, क्योंकि सभी राजनेता उसी में बोलते थे। आज भी हिंदी का चरित्र ऐसा है कि वह सबसे ज्यादा अनुवाद करती है भारतीय भाषाओं में। उसका किसी से कोई रगड़ा नहीं है। वह भारतीय भाषाओं में सबसे छोटी बेटी है, वह सभी में आती-जाती है। और मातृभाषाएं तो हिंदी की नानी हैं, और हिंदी हमारी मां है। नानी और मां में कैसा झगड़ा, वह तो प्रेम का रिश्ता है। हिंदी में तो सभी शब्दों को बराबरी की चटाई पर बैठाया गया है, तत्सम हों, तद्भव हो या फिर देशज।

महिलाएं आलोचना के क्षेत्र में क्यों नहीं हैं? क्यों उनकी आलोचना में जरूरत है?
महिलाओं को कौन सीरियसली लेता है? ऐसा नहीं है कि वे आलोचना कर नहीं सकतीं, लेकिन बौद्धिकता से स्त्रियों को एकाकार करके देखने का चलन नहीं है। लोग सोचते हैं कि भावोच्छास है, इसलिए कविता-कहानी लिख लेगी, मगर चिंतन कहां कर पाएगी? इसी कारण वे लिखती भी हैं तो समीक्षाएं लिखती हैं। उनसे बुक रिव्यू लिखवाकर छोड़ दिया जाता है। जिस तरह से कविता और कहानी की भाषा बदली है तो आलोचना की भी भाषा और तरीका बदलना होगा। दूसरी भाषाओं, मसलन- मराठी हो या मलयाली, महिला आलोचक खूब हैं। एक हिंदी है, जिसमें नहीं हैं।

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