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अपना घर कब संभाल पाएगी कांग्रेस, राजस्थान, कर्नाटक से लेकर छत्तीसगढ़ में कलह

कांग्रेस में आपसी गुटबाजी और वक्त से फैसला न ले पाने की जो मुसीबत है, वह खत्म ही नहीं हो रही है। राजस्थान में एक बार फिर सचिन पायलट और अशोक गहलोत के बीच टकराव तब सामने आया, जब कर्नाटक विधानसभा चुनाव सिर पर हैं और पार्टी वहां बेहतर प्रदर्शन की उम्मीद कर रही है। इस घटना ने कांग्रेस को ऐसे समय में बैकफुट पर धकेला, जब राहुल गांधी के संसद से अयोग्य घोषित होने के बाद पार्टी देश भर में संगठन स्तर पर आंदोलन करने की तैयारी कर रही है। बड़ी बात यह कि पार्टी के अंदर जो समस्या दिख रही है, वह अचानक सामने नहीं आई है। जब भी कांग्रेस खुद को बीजेपी के सामने रिवाइव करने की कोशिश करती है, ऐसे विवाद इन कोशिशों पर पानी फेर देते हैं। यह भी कोई पहला मौका नहीं है। अक्सर पार्टी को ऐसे ही अहम मौकों पर अंदर से करारे झटके लगते रहे हैं, खासतौर से तब, जब उसके अंदर एकजुटता की सबसे ज्यादा जरूरत महसूस की जा रही हो।

हर राज्य में है समस्या

2014 के बाद पिछले कुछ सालों से पार्टी जिस तरह से दिन-ब-दिन कमजोर होती रही, वह इसी गुटबाजी और अनिर्णय का नतीजा कहा जा सकता है। इसके चलते आज पार्टी सिर्फ तीन राज्यों- राजस्थान, हिमाचल प्रदेश और छत्तीसगढ़ में अपने दम पर सरकार में है। राजस्थान में भी इस साल चुनाव होने हैं। इस चुनावी साल में कांग्रेस के अंदर जिस तरह से सचिन पायलट और अशोक गहलोत के बीच घमासान हुआ और यह मामला जयपुर से दिल्ली तक पहुंचा, उससे पार्टी के अंदर एक और विभाजन की आशंका दिखने लगी। हालांकि पार्टी के नेताओं ने हस्तक्षेप कर हालात को और बिगड़ने से रोकने की कोशिश की, लेकिन राजनीतिक पंडितों का मानना है कि नुकसान तो हो चुका है। जैसे ही राजस्थान में मामला उठा, उसे अपने लिए मौका समझते हुए छत्तीसगढ़ में टीएस सिंहदेव ने भी अपनी बात उठा दी। कर्नाटक में डीके शिवकुमार बनाम सिद्धारमैया का विवाद भी पिछले कुछ सालों से पार्टी के लिए सिरदर्द बना रहा, और चुनावी नतीजों से पहले ‘कौन बनेगा मुख्यमंत्री’ के मुद्दे पर तकरार हो चुकी है। महाराष्ट्र में भी पार्टी दो भागों में बंटी हुई है। इसी गुटबाजी के कारण कांग्रेस मध्य प्रदेश में डेढ़ दशक बाद सत्ता में आने के बावजूद सरकार गंवा चुकी है।

अंसतुष्ट नेताओं की लंबी लिस्ट

राष्ट्रीय संगठन में पहले से ही अंसतुष्ट नेताओं की लंबी लिस्ट है। पिछले कुछ दिनों से वे लगातार अपने ही नेतृत्व पर सवाल उठा रहे हैं। गुलाम नबी आजाद और कपिल सिब्बल जैसे नेता तो पार्टी भी छोड़ गए। हालांकि सिब्बल पार्टी छोड़ने के बाद भी नेतृत्व के प्रति नरम हैं, लेकिन आजाद जिस तरह से अपनी ही पुरानी पार्टी को घेर रहे हैं, उससे पार्टी को कहीं न कहीं नैरेटिव के स्तर पर नुकसान हुआ है। बीते साल पंजाब से लेकर उत्तराखंड तक कांग्रेस की शर्मनाक हार के पीछे ऐसी ही गुटबाजी को कारण माना गया। पिछले एक साल के अंदर दो पूर्व सीएम और आधा दर्जन प्रदेश अध्यक्ष अलग-अलग राज्यों में पार्टी छोड़ चुके हैं। ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यह उठ रहा है कि क्या कांग्रेस इस हालत से कभी बाहर भी निकल पाएगी या नहीं? हालांकि इससे निपटने के लिए पार्टी ने कोशिश भी की। पिछले दिनों मल्लिकार्जुन खरगे के रूप में पार्टी को गैर गांधी परिवार से अध्यक्ष मिला। लेकिन अभी यहां अनिर्णय की ही स्थिति दिख रही है। खरगे के पदभार संभालने के बाद अब तक पार्टी संगठन में नई नियुक्तियों के लिए नई CWC का ही गठन नहीं हुआ है। यहां भी माना जा रहा है कि संतुलन बनाने की कोशिश में देर हो रही है। पार्टी के एक सीनियर नेता ने कहा कि अब लोकसभा चुनाव में ठीक एक साल बाकी है और बीजेपी चुनाव प्रचार के साथ मैदान में उतर चुकी है। कांग्रेस को अगर हकीकत में चुनौती देनी है तो अब उसी हिसाब से प्रो-एक्टिव होना होगा।

क्षेत्रीय दलों की नजर

ऐसा नहीं है कि कांग्रेस की समस्या सिर्फ पार्टी का अंदरूनी मामला है। तमाम सहयोगी और क्षेत्रीय दल भी चाहते हैं कि पार्टी अपने मसलों को जल्द से जल्द सुलझा कर सामने आए, ताकि विपक्षी एकता और इससे जुड़े दूसरे मुद्दों को सुलझा कर रणनीति साफ की जाए। तमाम क्षेत्रीय दल कांग्रेस पर आरोप लगाते हैं कि पार्टी ‘न खेलेंगे-न खेलने देंगे’ के रुख पर कायम है। उनका कहना है कि पार्टी के अंदर अनिर्णय की जो स्थिति बनी रहती है, वह उनकी भी योजनाओं को प्रभावित करती है। एक क्षेत्रीय दल के नेता ने कहा कि एक तरफ कांग्रेस अपने बिना विपक्षी एकता की कोशिश को खारिज करती है, और फिर इसके लिए कोई सकारात्मक पहल भी नहीं करती है। हालांकि ऐसे तमाम फीडबैक मिलने के बाद कांग्रेस ने इस मोर्चे पर पहल की। राहुल गांधी और खरगे ने एक दिन पहले नीतीश कुमार से मुलाकात की और उन्हें विपक्षी एकता के लिए पहल करने को अधिकृत किया। सावरकर के मुद्दे पर उद्धव ठाकरे और शरद पवार की आपत्ति को भी स्वीकार किया।

विपक्षी एकता पर नरम हुए राहुल

विपक्षी एकता की दिशा में राहुल गांधी भी अपना रुख नरम कर चुके हैं। पिछले कई मौकों पर उन्होंने सार्वजनिक मंच से संकेत दिया कि वह सभी दलों को साथ लेकर चलने को तैयार हैं। कांग्रेस के अंदर अब इस बात पर सहमति बनती दिख रही है कि अगर पार्टी की ओर से सकारात्मक पहल अभी नहीं की गई, तो उसका खामियाजा उन्हें ही भुगतना पड़ सकता है। ऐसे में कुछ मुद्दों पर पार्टी अपने स्टैंड में भी लचीला रुख अपनाने को तैयार दिख रही है। कुल मिलाकर कांग्रेस के लिए अब उल्टी गिनती शुरू हो चुकी है। अगले 30 दिनों में कर्नाटक विधानसभा चुनाव के परिणाम आने हैं। ये नतीजे और पार्टी की अंदरूनी दिक्कतों को समाप्त करने की दिशा में जो भी पहल होगी, वह 2024 की दशा को बहुत हद तक तय करेगी। अब पार्टी ऐसे मोड़ पर आ चुकी है जहां से अनिर्णय और समस्या को टालने की पुरानी आदत का अंतिम प्रतिकूल परिणाम सामने आ सकता है।

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