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IPCC क्‍या है, क्‍यों अहम? Global Warming पर सबसे बड़ी रिपोर्ट को समझ‍िए

नई दिल्ली: स्विट्जरलैंड का इंटरलेकन शहर इन दिनों जलवायु परिवर्तन के संकट पर मंथन का अहम केंद्र बना हुआ है। वहां 195 देशों के प्रतिनिधि जलवायु परिवर्तन के संकट पर संयुक्त राष्ट्र से जुड़ी संस्था IPCC की सिंथेसिस रिपोर्ट को अंतिम रूप दे रहे हैं। रविवार तक चलने वाली इन बैठकों का नतीजा सोमवार को रिपोर्ट के रूप में सामने आएगा। इस रिपोर्ट का प्रभाव इसी साल दिसंबर में दुबई में होने वाले संयुक्त राष्ट्र के सम्मेलन COP28 पर भी दिखेगा। इंटरलेकन के तुरंत बाद डेनमार्क के कोपेनहेगन में मंत्रिस्तरीय बैठक होगी, जहां पिछले साल इजिप्ट के शर्म अल-शेख में हुए COP27 में लिए गए फैसलों को लागू करने के तरीकों पर चर्चा होगी। खासकर ग्लोबल वॉर्मिंग से जुड़ी आपदा से प्रभावित देशों को मदद के लिए फंड बनाने पर चर्चा होगी। यह बैठक साल के अंत में दुबई में होने वाले COP28 के लिए उत्साहजनक माहौल बनाएगी। फिर संयुक्त राष्ट्र में जल सम्मेलन होगा। उदयपुर और गांधीनगर में जलवायु परिवर्तन से जुड़ी G20 की बैठकें होंगी।

क्या है IPCC, क्यों अहम इसकी रिपोर्ट?

Intergovernmental Panel on Climate Change संयुक्त राष्ट्र की इकाई है जो जलवायु परिवर्तन के प्रभाव और भविष्य में आने वाले इनके खतरों का आकलन करती है। साथ ही, इससे होने वाले नुकसान को कम करने और दुनिया के तापमान को स्थिर रखने के विकल्पों को भी सुझाती है। विश्व मौसम विज्ञान संगठन और संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम ने 1988 में इसे स्थापित किया था। यह संगठन जलवायु परिवर्तन पर कुछ-कुछ साल में रिपोर्ट जारी करता है। यह रिपोर्ट विशेषज्ञों द्वारा तैयार की जाती है और संयुक्त राष्ट्र के सदस्य देश इसकी समीक्षा करते हैं और सर्वसम्मति से मंजूरी देते हैं। स्विट्जरलैंड के इंटरलेकन में इसी रिपोर्ट की समीक्षा चल रही है। इस रिपोर्ट से नीति निर्माताओं को भविष्य की योजना बनाने में मदद मिलती है।

अब तक कितनी समीक्षा रिपोर्ट?
IPCC की 5वीं समीक्षा रिपोर्ट 2014 में आई थी। उसी रिपोर्ट के आधार पर पैरिस क्लाइमेट समिट में तय हुआ था कि इस सदी के अंत तक ग्लोबल वॉर्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस पर बनाए रखना है। अब इंटरलेकन में छठी समीक्षा रिपोर्ट आनी है। इसमें फरवरी 2015 से लेकर अब तक के 8 वर्षों की रिपोर्ट का सारांश यानी सिंथेसिस रिपोर्ट होगी। इसमें 2018 से आई सभी रिपोर्टों की अहम बातों को समाहित किया जाएगा। यही समीक्षा रिपोर्ट जलवायु परिवर्तन पर आगे होने वाली चर्चाओं का आधार बनेगी।

क्या आज की रिपोर्ट चौंकाएगी?
सोमवार को जारी होने वाली रिपोर्ट बहुत चौंकाएगी इसके आसार कम हैं, क्योंकि जलवायु परिवर्तन के प्रभाव पहले से दिखने लगे हैं। धरती को इन परिवर्तनों से होने वाले खतरे के बारे में पहले ही काफी कुछ कहा जा चुका है। हालांकि सिंथेसिस रिपोर्ट बस पिछली बातों को सार रूप में ही कह देने से कुछ ज्यादा होगी। लेखकों को अपनी इस रिपोर्ट में सरकारों और समाज की चिंताओं को समाहित करना होगा। हर बार के ऐसे सम्मेलनों की तरह इस बार भी रिपोर्ट की भाषा पर तकरार होना और कुछ वाक्यांश पर जोर देना तय है।

क्या है पैरिस समझौता?
2014 की पैरिस क्लाइमेट समिट में तय किया गया था कि ग्लोबल वॉर्मिंग को पूर्व औद्योगिक स्तर की तुलना में 2 डिग्री सेल्सियस से नीचे रखने की हर कोशिश करनी होगी। आगे चलकर वॉर्मिंग की वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक रखने का लक्ष्य था। लेकिन IPCC की 2018 की रिपोर्ट में दिखने लगा था कि ग्लोबल वॉर्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने का जो लक्ष्य तय किया गया है, तापमान कहीं तेजी से इस सीमा को लांघने वाला है। विश्व मौसम विज्ञान संगठन की रिपोर्ट के अनुसार, पूर्व औद्योगिक स्तर की तुलना में ग्लोबल वॉर्मिंग 1.2 डिग्री सेल्सियस के ऊपर जा चुकी है। बहुत मुमकिन है कि पांच साल में यह 1.5 डिग्री सेल्सियस के लक्ष्य को भी पार कर जाएगी। इसलिए, सोमवार की रिपोर्ट में पैरिस समझौते में तय लक्ष्य पर ही जोर देने की उम्मीद है।

ग्लोबल वॉर्मिंग का असर दिखने लगा?
ग्लोबल वॉर्मिंग आबादी पर असर डालने लगी है। भारत में इस साल का फरवरी अब तक का सबसे गर्म महीना रहा। देश के अन्य हिस्सों में भी असामान्य रूप से पहले गर्मी आ चुकी है। दुनिया के कई अन्य हिस्सों में ऐसी ही स्थिति है। चरम मौसमी घटनाएं अब आम बात हो चुकी हैं। तूफानी बारिश, बाढ़, कड़कड़ाती सर्दी और चिलचिलाती गर्मी जैसी ये चरम मौसमी घटनाएं अब 15 गुना ज्यादा जानें ले रही हैं। पिछला दशक 1.25 लाख साल में सबसे गर्म रहा था। यह साल अब तक का सबसे गर्म रहने का अनुमान है।

मुद्दे जिन पर असहमति है?
ग्लोबल वॉर्मिंग बढ़ाने में जीवश्म ईंधन- जैसे डीजल-पेट्रोल का अहम योगदान है। लेकिन इनके प्रयोग को धीरे-धीरे खत्म करने पर सहमति नहीं बन पा रही है। हाल की मीडिया रिपोर्टों से पता चला है कि यूरोप 2050 तक जीवाश्म ईंधन को खत्म करने की वैश्विक प्रतिबद्धता पर जोर दे सकता है। लेकिन इस दिशा में कई दौर की बैठकें होनी बाकी हैं।

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